कमज़ोर डोर |
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कहनी थी तुमसे बात जो, वो अधूरी रह गयी
खाई थी जो कसम वो कसम भी रह गयी
सवाल ऐसे थे के कुछ कह न सके हम
जो कटी रात आंखों में वो रात रह गयी
गलतफैमियूं का इलाज कर न सके हम
जो सच थी बात वो अनकही ही रह गयी
क्या खबर थी के धोखा होगा हमें
आइना भी चेहरा अलग दिखायेगा हमें
पछतावा है अपने अभिमान पे हमें
मान रहे थे जिसे अपना वही सजा देगा हमें
ऐसी भी क्या मजबूरी कभी बात न हुई
दूरी इतनी भी न थी के तय न हुई
रिश्ता तो क्या निभता यार अपना !
डोर तो पहले ही कमज़ोर थी गांठ और पड़ गयी।