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नमस्कार दोस्तो, प्रस्तुत है आज की कविता * कारवां लेके हम चले * इस कविता में मैंने समाज में रह रहे इंसान की सोच को, उसके अहंकार को और उसके अन्य पहलु को बताया है, लेकिन इस कविता का मूल आधार है, "स्वय में बदलाव करना" और इस बदलाव की शुरुवात हमें किसी से उम्मीद करके नहीं बल्कि खुद से शुरू करनी होगी। *कविता पढ़िए और अच्छी लगे तो अपने दोस्तो और रिश्तेदारो के साथ साझा कीजिये।
कारवां लेके हम चले
चले सबसे आगे हम चले ,
लेकिन अकेले नहीं सबको लेके हम चले।
क्यों इंतज़ार करे किसी के सर झुकाने का हम,
शान तो तब है, जब सजदे में सर को झुका के हम चले।
हैरत है कोई पूछता नहीं हाल भी कभी,
क्या गलत है ! अगर सबको गले लगाके हम चले।
ना आएगा मदद करने कोई भी इधर !
क्यों न हम ही, सबके ज़ख्मो पे मरहम लगाते हुए चले।
है अकेला हर कोई दुनिया की भीड़ में ,
एकता तो तब है , जब धागे में मोतियों को पिरोते हुए चले।
बेबस है कितना हर एक शख्स जहाँ में ,
भला तो तब है जब सबका हौसला बढ़ाते हम चले।
क्यू किसी के.. बदलने का इंतज़ार करे हम ?
पहल तो तब है जब.. बदलाव लेके हम चले।
क्यों ? दुआओं में किसीके उम्मीद हम करे ?
आशीष! तो तब मिले , जब सबको दुआओं में लेके हम चले।
अकेले चलने में कुछ न मज़ा है दोस्तो !
"उठो और आगे बढ़ो" ये कारवाँ ले के हम चले।।
Waah!kya likhte hai aap ❤🤍❤
ReplyDeleteKhúsh hoon mein Padhke😘
ReplyDeleteSada khúsh raho beta
ReplyDeletePlan banao kaha chale 😜
ReplyDelete❤❤
ReplyDeleteवाह क्या खूब लिखा है।
ReplyDeleteThanku Satish
DeleteThanks all for your wishes :))
ReplyDeletebtaie kha chlna hai...k
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